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अ॒ग्निं यु॑नज्मि॒ शव॑सा घृ॒तेन॑ दि॒व्यꣳ सु॑प॒र्णं वय॑सा बृ॒हन्त॑म्। तेन॑ व॒यं ग॑मेम ब्र॒ध्नस्य॑ वि॒ष्टप॒ꣳ स्वो᳕ रुहा॑णा॒ऽअधि॒ नाक॑मुत्त॒मम् ॥५१ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्निम्। यु॒न॒ज्मि॒। शव॑सा। घृ॒तेन॑। दि॒व्यम्। सु॒प॒र्णमिति॑ सुऽप॒र्णम्। वय॑सा। बृ॒हन्त॑म्। तेन॑। व॒यम्। ग॒मे॒म॒। ब्र॒ध्नस्य॑। वि॒ष्टप॑म्। स्वः॑। रुहा॑णाः। अधि॑। नाक॑म्। उ॒त्त॒मम् ॥५१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:51


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

कैसे नर सुखी होते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - मैं (वयसा) वायु की व्याप्ति से (बृहन्तम्) बड़े हुए (दिव्यम्) शुद्ध गुणों में प्रसिद्ध होनेवाले (सुपर्णम्) अच्छे प्रकार रक्षा करने में परिपूर्ण (अग्निम्) अग्नि को (शवसा) बलदायक (घृतेन) घी आदि सुगन्धित पदार्थों से (युनज्मि) युक्त करता हूँ (तेन) उससे (स्वः) सुख को (रुहाणाः) आरूढ़ हुए (वयम्) हम लोग (ब्रध्नस्य) बड़े से बड़े के (विष्टपम्) उस व्यवहार को कि जिससे सामान्य और विशेष भाव से प्रवेश हुए जीवों की पालना की जाती है और (उत्तमम्) उत्तम (नाकम्) दुःखरहित सुखस्वरूप स्थान है, उसको (अधि, गमेम) प्राप्त होते हैं ॥५१ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य अच्छे बनाए हुए सुगन्धि आदि से युक्त पदार्थों को आग में छोड़ कर पवन आदि की शुद्धि से सब प्राणियों को सुख देते हैं, वे अत्यन्त सुख को प्राप्त होते हैं ॥५१ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

कीदृशा नराः सुखिनो भवन्तीत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(अग्निम्) पावकम् (युनज्मि) सुगन्धैर्द्रव्यैर्युक्तं करोमि (शवसा) बलेन (घृतेन) आज्येन (दिव्यम्) दिवि शुद्धगुणे भवम् (सुपर्णम्) सुष्ठु पालनपूर्तिकरम् (वयसा) व्याप्त्या (बृहन्तम्) महान्तम् (तेन) (वयम्) (गमेम) गच्छेम। अत्र बहुलं छन्दसि [अष्टा०२.४.७३] इति शपो लुक् (ब्रध्नस्य) महतः (विष्टपम्) विष्टान् प्रविष्टान् पाति येन तत् (स्वः) सुखम् (रुहाणाः) रोहतः (अधि) उपरिभावे (नाकम्) अविद्यमानदुःखम् (उत्तमम्) श्रेष्ठम् ॥५१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - अहं वयसा बृहन्तं दिव्यं सुपर्णमग्निं शवसा घृतेन युनज्मि, तेन स्वो रुहाणा वयं ब्रध्नस्य विष्टपमुत्तमं नाकमधिगमेम ॥५१ ॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या अग्नौ सुसंस्कृतानि सुगन्ध्यादियुक्तानि द्रव्याणि प्रक्षिप्य वाय्वादिशुद्धिद्वारा सर्वान् सुखयन्ति, तेऽत्युत्तमं सुखमाप्नुवन्ति ॥५१ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे उत्तम रीतीने तयार केलेल्या सुगंधी पदार्थांना यज्ञाग्नीत अर्पण करून वायू वगैरे शुद्ध करतात. ते सर्व प्राण्यांना सुखी करतात व त्यांनाही अत्यंत सुख प्राप्त होते.